चिन्मय मिशन साहित्य >> भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्स्वामी चिन्मयानंद
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जगद्गुरु शंकराचार्य की समस्त मानव जाति को अनुपम भेंट...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
मुझमें कुछ मौलिकता नहीं है तभी तो अनुवाद के माध्यम से ही प्रकाशन की
अभिलाषा पूरी करना चाहता हूँ। इसके पहले
‘‘पुरुष-सूक्तम्’’ पर स्वामी चिन्मयानन्द की
अंग्रेजी व्याख्या का हिन्दी अनुवाद मैंने किया किस परिस्थिति में किया,
यह तो उस पुस्तक में बता ही चुका हूँ। जिन लोगों ने उसे पढ़ा है उन्होंने
उसकी प्रशंसा की। उससे उत्साहित होकर मैंने सोचा कि अनुवाद का जोड़ा
लगा दिया जाए- और इसी अभिप्राय से स्वामी जी के कुछ अन्य ग्रन्थों को
उलटना प्रारम्भ किया। ‘‘भज गोविन्दम्’’ पर दृष्टि
पड़ी। उसके पन्नों को मैंने उलटा। पहले पहल तीसरा श्लोक निकला
‘‘नारीस्तनभरनाभीदेशं’’- कुछ कौतूहल बढ़ा-यह किसे
बिना आकर्षित किये रह सकता है ? मैने इस श्लोक की अंग्रेजी व्याख्या पढ़ी।
तब ध्यान में आया कि क्या वास्तव में उसके प्रति हमें आकर्षित होना चाहिये
? कंचन और कामिनी में बहुत घना सम्बन्ध है। किसी एक से अगर छुटकारा मिल
जाये, तो दूसरे पर विजय पाना आसान हो जायेगा – और अगर इन
दोनों से त्राण मिल गया तो ‘अहं’ दूर और बेड़ा पार। आइये, आप
भी आजमाइये और देखिये कहां तक सफलता मिलती है।
मेरे दिवंगत पिता रामसहाय सिद्धनाथ मिश्र को यह पुस्तक सादर समर्पित है।
मेरे दिवंगत पिता रामसहाय सिद्धनाथ मिश्र को यह पुस्तक सादर समर्पित है।
विश्वनाथ मिश्र
भगवान् शंकराचार्य
परिचय
भगवद्पाद आचार्य शंकर केवल एक बड़े द्रष्टा और अद्वैत सिद्धान्त के
मूर्धन्य प्रतिपादक ही नहीं थे, वरन् मूलतः हिन्दू धर्म के एक
अन्तःप्रेरित समर्थक और देश के सबसे बड़े ओजस्वी धर्म प्रचारक थे। उस समय
ऐसे ही शक्तिशाली नेता की आवश्यकता थी, जबकि बौद्ध दर्शन के लुभावने जाल
में धर्म समाप्तप्राय हो चुका था और हिन्दू समाज टूट कर अनेक शाखाओं और
सम्प्रदायों में विभक्ति हो गया था, जो अपना-अपना अलग सिद्धान्त
प्रतिपादित करते थे और आपस में झगड़ते थे। ऐसा लगता था कि हर पण्डित का
अपना दर्शन, अपना सिद्धान्त और अपना अनुगामी दल था। हर व्यक्ति दूसरे
के सिद्धान्त का घोर विरोधी था। यह बौद्धिक पतन, विशेष कर
आध्यात्मिक क्षेत्र में, कभी इतना भयंकर और विनाशकारी नहीं हुआ जितना श्री
शंकराचार्य के समय में।
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